Tuesday 15 March 2016

भूख के दम पर करतब दिखाती जिंदगी -


 रोटी के लिए टूटना 

चौराहे पर भूख से भटकती जिंदगी क्या कुछ करने को मजबूर नहीं हो जाती हैंयूंही नहीं कोई अपनी जिंदगी को दाव पर लगा देता हैक्योंकि जिंदगी से ज्यादा प्यारी कोई भी चीज नहीं है इस धरा पर और क्या चिटीं और क्या इंसानहर किसी को अपने जान की परवाह होती हैंलेकिन यदि वह अपनी जिंदगी को दाव पर लगा दिया तो जरा सोचिएकि रोटी की क्या किमत हैसिर्फ एक निवाले के लिएबस एक जोड़ी कपड़ा दुनिया के नजर से छुपाने के लिए और एक छत धूप -बारिश से सर को छुपाने के लिए भले ही वह घास-फूस या खपङैल ही क्यों ना होक्योंकि यही तो है हमारी प्राथमिक आवश्यकताएं जिनके लिए हर इंसान संघर्ष करता हैलेकिन हमारे पास तो आधार है खङा होने का और कुछ करने कालेकिन मैं जिनकी बात करने जा रहा हूँउनके पास तो कुछ भी नहीं सिवाए भूखे शरीर केतो फिर उसको किस हद तक फिकर होगी रोजमर्रा की जिंदगी को लेकरहम तालियां बटोरने के लिए पैसे लूटा देते हैं और एक यह लोग हैं जो कि बस भूख मिटाने के लिएजान तक को दाव पर लगा देते हैं.


कौन हैं यह लोग 
यह लोग हमारे ही आसपास के क्षेत्रों के हैंजिनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं है लेकिन ऐसे लोग हमें हमारे हर चौक चौराहे व गली खुचे में मिल ही जाते हैं.कभी ढोलक बजातेकभी गाते,मदारी दिखाते इत्यादिबहुतायत तो ऐसे भी मिलते हैं जिनको दुनिया की कोई खबर नहीं है.भूख इनकी मानसिकता को इस कदर बदल दिया है कि इन्हें बस रोटी दिखाई देता हैचाहे वह कचङे के डिब्बे में हो या फिर रोड परठंडी हो या गर्मी क्या फर्क पड़ता हैक्योंकि इनके बदन हालातों के चपेट में आ कर सुन्न हो गए हैं और जिसको थोड़ी सी परवाह हैंउनके लिए तो अखबार व बोरी ही काफी है ताउम्र बदन ढँकने के लिएआप चाहें सफर में हो या कहीं भीमिल ही जाते हैं ऐसे लोगयह लोग पहचान के मोहताज नहीं है लेकिन विडम्बना तो यह है कि इनकी गिनती होती ही नहीं है वास्तविक रूप से.

आँकङो पर उठते सवाल 
हालांकि आप अगर रिपोर्ट ढूंढने के लिए बैठेंगे तो हजारों तरह के शोधकर्ताओं का आंकड़ा मिल जाएगा लेकिन परिवर्तन तो आपको एक प्रतिशत भी नहीं मिल सकता हैकिस आधार पर इनका आँकङा बनाया जाता है क्योंकि यह तो कहीं भी स्थाई रूप से नही रहते हैं.  365 दिन में से पूरा 365 दिन भटकते रहते हैं,गुजारा करने के लिएआज दिल्ली तो कल कलकत्ता यह है इनकी जिंदगीयह भी हुआ होगा कि कितने लोगों का दो तीन बार तो किसी का एक बार भी गिनती नहीं हुआ होगा सुधार हेतुजब प्रारंभिक कार्य ही व्यवस्थित रूप से नहीं हुआ है तो फिर आगे की रणनीति या प्रक्रिया का विफल होना तय हैतो अगर ऐसा किया जाए कि पूरे भारत में एक साथ एक समय में सर्वे कराया जाये और साथ ही साथ उन्हें पहचान के साथ रहने के लिए जगह भी उपलब्ध कराया जाये तो काफी हद तक हम इस समाजिक विफलता को दूर कर सकते हैं.यह इतना आसान नहीं है लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ रही है और पीढी दर यह पनपता जा रहा हैजो कि हमारे समाजिक विकास के लिए अवरोधक बनते जा रहा हैक्योंकि आर्थिक समाजिक विकास के आंदोलनकारी अम्बेडकर के अनुसार "समाज के चौतरफा विकास के लिए जरूरी है कि सबसे पहले कार्य की शुरुआत निचले स्तर के लोगों के साथ किया जाये".

क्या है इनका पेशा 
जिंदगी के प्यासे रंग 
जिस तरह से इनके घर का ठिकाना नहीं हैठीक उसी तरह इनका कोई एक मूल रूप से कार्य नहीं हैलेकिन मुख्य रूप से हमने इनको जानलेवा करतब दिखाते हुए देखा हैंजैसे कि पलकों से सुई उठानालोहा के सरिया को गर्दन व कमर के बल से मरोड़ना,बोतल के ऊपर खङा हो कर नाचना और बदन को तोड़ मोङ कर गोल कर लेनायह सारे करतब दिखाने वाले वैसे मासूम बच्चे हैं जिनको विद्यालय में होना चाहिएयही बच्चे आगे चलकर शराबी बन जाते हैं या फिर बहुत बार देखने को मिलता है कि अन्य बुरी लत के से भी ग्रसित हैं या किसी असमाजिक गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं और जो इन सब से बचते हैं वह इस पेशे को जिंदा रखते हैंबाकी तो आपने सपेरा व मदारी वालों को भी देखा ही हैंसर्कस भी इन्हीं कि खोज हैं लेकिन आज के दौर में वह अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय बन गया है और यह लोग आज भी जागरूकता के अभाव में भटकते फिर रहे हैंइन लोगों की बहुत सारी कलाअों का प्रयोग हम व्यापक रूप से कर इनकी आर्थिक वृद्धि बढा सकते हैं और एक ढंग की जिंदगी दे सकते हैं लेकिन अफसोस कि हमारा ध्यान इन पर जाता नहीं हैजाता भी है तो बस दो चार छुट्टे पैसे डाल कर निकल लेते हैंबच्चों से खतरनाक करतब दिखानासांप पकड़ना,भालू का नाच दिखाना सब अमानवीय हैं और यह कानूनन जुर्म भी है लेकिन इन सब तमाशा को नजर बंद कर के देखना क्या समाज के हित में हैंयह खेल'नजरबंदका नहीं है बल्कि जरूरत है हमें जागरूक व क्रियाशील नागरिक बनने का ताकि हमारे समाज की छवि और ज्यादा से ज्यादा बेहतर बने.

बातें जो मन को झकझोर दी 
भूख का  दर्द 
ऐसे तमाशे मैंने कई बार देखा था.परंतु इस बार मैं अपने इंटर्नशिप के दौरान पटना गांधी मैदान से रिपोर्टिंग कर के प्रभात खबर कार्यालय जाने के लिए निकला तो देखा कि बाँस घाट के पास काफी भीड़ लगी हुई हैंमैंने आॅटोरिक्शा को रुकवाया और चल पङा भीङ की ओरजब मैं बच्चों के जानलेवा करतब देखा तो वाकई में मेरे होश उड़ गए क्योंकि ऐसे करतब मैं पहली बार देख रहा था और उससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि उनके टीम में नन्हीं लङकीयां, 3 नन्हे लङके व पति-पत्नी यानि कि सबसे ज्यादा महिलाएं थीमुझे याद आया कि हाल ही में हम मनाये अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और दुसरे तरफ देखा महिला कितनी है विवश.बङी मार्मिकता व करूणा भरा पल था जो कि मन मस्तिष्क पर चोट करने लगामैं जब करतब दिखाने वाली एक लङकी से बात किया तो वह बोली की "हां मैं पढूंगी लेकिन खाना फिर कहां से आएगातो यह सवाल मुझे खामोश कर दिया फिर वह लङकी चली गई अपने मां के पासफिर जब मैं उसकी माँ(रेशमीसे बात किया तो वह बताती हैं कि "जब मैं छोटी थी तो उसके माता-पिता उससे यह काम करवायेफिर 14 साल की उम्र में शादी-ब्याह हो गया फिर बच्चे हुएअब यह पेशा मैं अपने बच्चों से करा रही हूँमैंने पढ़ाई तो नहीं किया है लेकिन इतना हैं कि हम लोगों को भूखे नहीं सोना पङता है और ना ही भीख मांगने की जरूरत पड़ती है".  मैंने फिर जब सवाल किया तो बोली कीसाहब जाइये मुझे मेरा काम करने दीजिए क्योंकि बहुत बार बहुत साहब हमारे बात को लिखे हैं लेकिन हुआ कुछ नहीं". मैं जाते-जाते उस अबोध बच्ची से पूछा कि तुमको दर्द नहीं होता है तो वह बच्ची बोली की"जब भूख लगती है तो सब कुछ करना पड़ता है और कुछ दर्द नहीं होता है". और वो लोग अपनी पोटली समेट कर कर चल पङेमैं बिल्कुल हक्का-बक्का खङा रहा बच्ची के जवाब को सुनकरअब मेरे सामने सवाल आ खङा हुआ कि क्या मुझे लिखना चाहिए!फिर मैं सोचा कि मैं तो लिख कर ही कुछ कर सकता हूं तो फिर वहां के लोगों से बातचीत कर के प्रतिक्रियाएं लेने लगा तो मुझे राजेश कुमार ( 07 Day's Restaurant) के मालिक ने कहा कि "मैं ना सरकार को दोषी मानता हूँ और ना ही उनके समुदाय कोलेकीन हम लोग जिस स्तर पर भी हैहमें उसी स्तर से इनकी मदद करनी चाहिए तभी समाज में सकारात्मक बदलाव होगा"और वह हर महीने अनाथ बच्चों को आर्थिक रूप से सहायता भी करते हैंहालांकि यह बात तो बिल्कुल सही है क्योंकि उन बच्चों से जानलेवा काम करवाना व सरकार तथा मिडिया का विफल होनासब तो जुर्म है लेकिन दोषारोपण से हासिल क्या होगा?मैं भी मन ही मन निश्चय किया कि जितना हो सकता है अपने क्षमता के अनुरूप सहायता करूंगा और चल पङा कार्यालय की ओर क्योंकि मैं भी अभी ट्रेनिंग में हूँ इसलिए काम भी जरूरी है ताकि भविष्य में इनके लिए कुछ करूं.जैसे ही कार्यालय के समीप चौराहे पर आया तो देख रहा हूँ कि कुछ बच्चें यहाँ पर भी वही कर रहे हैंभीङ लगी हैतालियाँ बज रही हैंपैसा भी लोग दे रहे हैं लेकिन बस बदला है तो इतना ही भर कीजोखिम भरे करतब दिखाने वाले बच्चों के चेहरे अलग है.