Wednesday 25 January 2017

लोकतांत्रिक लॉलीपॉप,'हम बने तुम बने वोट देने के लिए'-

लोकतांत्रिक लॉलीपॉप,'हम बने तुम बने वोट देने के लिए'-

चुनाव में जिस तरह से विज्ञापन पर राजनीतिक पार्टीयां खर्च करती हैं. लगता है कि पैसा तो पानी से भी सस्ता है, जब जहां जी चाहे बहा दो. बड़े-बड़े, लंबे-चौड़े पोस्टर-बैनर और टीवी-अखबार पर लगातर खुद की चौतरफा तारीफ, कितना सच है हम जैसे वोटरों के समझ से बाहर की बात है.

लेकिन समाज व्याप्त अराजकता, दंगे-फसाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि को देखकर तो लगता है कि कोई सही नहीं है, सब के सब गरीबों के टैक्स पर ऐश कर रहे हैं. इतना तो हम जान रहे हैं पर हम जैसे लोग हैं कितने. हर चुनाव में बस वादा और इरादा का नाटक देख रहे हैं. लेकिन फर्क बस इतना दिखता है कि वादा करने वाला चेहरा बदला तस्वीर भी वही है और दीवार तो खंडहर बना इतिहास को दुहरा रहा है. हर पांच साल में तक लगता है कि अब तस्वीर बदलेगी तो अब बदलेगी और ऐसे करते-करते चुनाव को दौर आ जाता है फिर हम चलते है खुद को जिम्मेवाव-जागरूक मतदाता साबित करने.

सिर्फ पांच साल में एक बार हमें लोकतांत्रिक हक मिलता है बाकि तो पांच साल उनके कठपुतली बने रहते हैं हम. विज्ञापन का ऐसा भंवर जाल बिछाया जा रहा है कि बहकना तो स्वभाविक है और जो नहीं बहकते हैं उनकी संख्या कितनी है या फिर वोट देंगे किसको क्योंकि बिना किसी को वोट दिए लोकतंत्र का पहिया गतिमान होगा ही नहीं. इस पहिया को गतिमान बनाने के लिए कुछ जागरूक लोग आगे आते हैं. कुछ युवा उम्मीदवार बनने का प्रयास करते हैं और कुछ तो कर भी चुके हैं पर उनके चुनाव क्षेत्र में उनकी आवाज एक कोने तक ही सिमट कर रह जाती है. क्योंकि एक पंचायत का मुखिया बनने के लिए भी पहले प्रचार-प्रसार करने के लिए कम से कम लाखों का खर्च करना पड़ता है तो फिर एमपी और एमएलए का उम्मीदवार बनना तो सोंच में ही सिमट कर रह जाती है. हालाकि चुनाव आयोग इसके लिए मापदंड बनाया है पर चुनाव के प्रचार-प्रसार के दौरान कितने निर्वाचन अधिकारी फिल्ड में नजर आते हैं, बस ऑफीस में बैठे-बैठे फरमान करने से तो वर्चस्व प्राप्त उम्मीदवारों को रोका नहीं जा सकता है.

विज्ञापन के दुरूपयोग को रोकने का कोई पुख्ता इंतेजाम हैं ही नहीं, अगर होता तो फिर विज्ञापन के अभाव में कोई अच्छा प्रतिनिधी हार मानकर बैठता नहीं. एक अच्छे उम्मीदवार के हार मान लेने से कई आने वाले उम्मीदवारों का मनोबल टूट जाता है और वे भी आखिरकार उसी तामझाम और चकाचौंध वाली राजनीति की हिस्सा बन जाते हैं. क्योंकि पुरखों से चली आ रही एक कहावत जो दिखता है वह बिकती है सटीक बैठती है.

दुनिया को दिखावा पसंद आता है क्योंकि जब तक दुनिया को दिखाएंगे नहीं तबतक आम लोग जान नहीं पाएंगे तो अच्छाईयों को दिखाने के लिए मीडिया का सहारा चाहिए. क्योंकि सारे लोग आपके परिवार के सदस्य नहीं हैं जो कि आसानी से आपके मन की बात समझ जाएंगे. पर सवाल तो यह है कि इन आम उम्मीदवारों को चंदा देगा कौन, वोट तो बाद की बात है.

अब हमे बस जागरूक वोटर बनाने पर जोर दिया जा रहा है. इस पर भी लाखों-करोड़ो का खर्च  जा रहा है. साहेब, वोट तो देंगे ही लेकिन हमें भी उम्मीदवार बनना है. तो फिर हमारे जैसे युवा उम्मीदवारों के लिए भी कुछ कीजिये ना! या फिर बस 'युवा देश शान हैं, जागरूक वोटर बने' का लोकतांत्रिक 'लॉलीपॉप' से ही कब तक लुभाते रहिएगा?