Monday 30 March 2015

विकास का मूलमंत्र हैं नाटक

विकास का मूलमंत्र हैं  नाटक 

साहित्य की महता व सुंदरता को शब्दों से बयां करना उतना ही मुश्किल हैं जितना की किसी व्यक्ति के इच्छा से परे होकर कला का प्रदर्शन करवा लेना। साहित्य मन की सुंदरता होती हैं, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता हैं।  साहित्य के भी कई एक भाग हैं और उनमे से एक हैं - नाट्य - कला। नाटक और समाज का सम्बन्ध २५०० वर्षों से चला आ  रहा हैं। यह एक ऐसा माध्यम हैं जिसके द्वारा हम आसानी से अपने भावनाओं व प्रतिक्रियाओं को प्रदर्शित करते हैं और  इतना ही नहीं मनोरंजन के साथ - साथ अपने समस्याओं का समाधान व भविष्य को लेकर सार्थक मंथन करते हैं। सदियों से चली आ रही नाट्य - विद्या के साथ - साथ अपने समाज को प्रगति के पथ पर भी अग्रसर करते  आए हैं और आज भी हम लोगो को जागरूक करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। यह संचार का एक ऐसा माध्यम  हैं  जिसकी भाषा शिक्षित ही नहीं बल्कि अशिक्षित व शारीरिक रूप से अपंग व्यक्ति भी बड़े गौर से समझ लेते हैं, मानव तो खैर बुद्धिजीवी हैं। बात अगर जानवरों की करे तो हमे इसका प्रभाव देखने को मिलेगा तभी तो हम विशालकाय जानवरों के सामने भावभिव्यक्ति से ही इनको अपनी तरह मानसिक रूप से तैयार कर देते हैं और जब बात भावभिव्यक्ति की आती हैं तो एक बात हमे समझने की जरूरत होगी की कला को भाषा - शब्दों की  नहीं बल्कि भाव {मन }की जरूरत होती हैं। कलाकार दर्शकों के मन की बात को बखूबी भाप लेता हैं और जब हम किसी के मानसिकता को पढ़कर उससे बात करेंगे तो यह तय है की समस्याओं का समाधान होना ही हैं ,इसीलिए तो हमारे जन - संचार विभाग के महान शोधकर्ताओं व विद्वानों का मानना  हैं की  जिस समाज के व्यक्ति मानसिक रूप से विकास नहीं करते तो उस समाज का विकास सम्भव नहीं हैं क्यूंकि अवरूद्ध मनोधारणा प्रगति के लिए हितकर नहीं होती हैं। नाटक ही वो मार्ग हैं जिसके द्वारा हम जन - समूह के जन - जन को  बिना किसी विशाल बाधा  के उन्हें हर एक बात बेहतर ढंग से बता और समझा सकते हैं। क्यूंकि नाटक की रसिकता और सलिलता मन की कुंठित अवधारणा को जड़ से ख़त्म कर देती हैं और साथ ही साथ मनोरंजन भी हो जाता हैं। ऐसा नहीं हैं की आज के दौर में नाटक नहीं हो रहा हैं परन्तु आज का यह समाज अपने मूल पथ से भटक चूका हैं और सिनेमा में परिवर्तित हो चूका हैं और अश्लीलता इसकी पहचान बन चुकी हैं ,तभी तो हम आज बस नाम का नाटक करते हैं और परिवर्तन यह कहता हैं की मैं कभी भी हितकर नहीं हूँ इसलिए इस क्षेत्र में एक संशोधन की जरूरत हैं ताकि विकास के नए स्त्रोत बने। हमारे इन्ही गलतियों की वजह से आज हमारा समाज दो वर्गों {अमीरी  - गरीबी } में बँट चूका हैं और संविधान ने भले ही हमे समानता और आजादी दे रखी हैं पर आज भी हम मानसिक रूप से हम विषम राह पर खड़े हैं।
                         वर्षों से चली आ रही बढ़ती नाट्य - कला के वजह से ही हम खुद को आज आधुनिक कर सके हैं तो फिर कैसे हम अपने सबसे प्रभावशाली माध्यम को किनारे कर विकास कर सकते हैं ? हर काल या हर समाज में भिन्न - भिन्न  भांति के लोग लोग होते हैं और हर समाज की कुछ न कुछ कुंठित मानसिकता होती है जो की विकास के मार्ग में बहुत बड़ी कठनाई खड़ा करती हैं , जिसके वजह से विकास के लिए किये गए  हमारे काम या योजना विफल हो जाते हैं। लोकतंत्र के जान समूह को यह समझने की जरूरत हैं की यह केवल मनोरंजन व प्रतियोगिता मात्र नहीं हैं बल्कि यह एक बहुत ही सहज और सरल पद्धति हैं जिसकी जरूरत आज की पीढ़ी के साथ कल के भविष्य तक को हैं। समाज के नेतृत्वकर्ताओं को भी इस क्षेत्र में निष्ठापूर्ण योगदान देकर इसे फिर से जन - जन तक पहुँचाने की आवश्यकता हैं। नाटक का सुप्रभाव तो हम जन  से लेकर जानवर तक देख ही चुके हैं तो इसको नज़रअंदाज़ किये बिना हमे फिर से इसको सामाजिक - मंच देना चाहिए और यह विद्या केवल नाटक मात्र नहीं बल्कि विकास की ऊर्जावान भाषा हैं ,जिसको शब्दों की नहीं केवल मन की जरूरत होती हैं।
                           अँधेरे मन की राह में नाटक का चिराग ही विकास को आलोकित करेगा , बस इसे समझने व समझाने की निष्ठापूर्ण कोशिश होनी चाहिए।



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