Monday 7 December 2015

आदत से मजबूर हैं हम

आदत से मजबूर हैं हम 

इस बात से तो हम कतई इंकार नहीं कर सकते हैं की दुर्घटना के बाद जागने की आदत हमारी पुरानी हैं। जब तक ठेस ना लगे हम अपनी आँखों को खोलकर किसी भी समस्या पर विचार - विमर्श कर ही नहीं सकते। "विनाश काले विपरीत बुद्धि " के जैसे कहावत हम अक्सर कहने से नहीं चूकते हैं पर कभी इस बात पर गौर ही नहीं किये की आखिर यह विनाशी पल आया कैसे और इसको लाने वाला कौन हैं ? क्यूँकि हम सब बखूबी यह जानते हैं की लगभग समस्याओं को आमंत्रित करने वाला कोई गैर नहीं हैं। हम बुद्धिजीवी तो हैं पर अपनी गलती को स्वीकारना हमने सीखा ही नहीं। आज हम जितना ज्यादा अविष्कार कर रहे हैं उतने ही तेजी से विनाश की तरफ रूख कर बढे जा रहे हैं। अविष्कार का मतलब जिंदगी को सुगमता देना हैं ,ना की दुर्गमता का द्वार खोलना पर पता नहीं हम कब समझेगें इस बात को ? अगर इन आँखों से देखने का और दिमाग के उपभोग का कर अदा करना होता तो आज का यह दृश्य ही अदृश्य हो गया होता।  बिल्कुल वैसे ही जैसे हमारी मानवता और प्राकृतिक - सुंदरता विलुप्त हो रही हैं। 
                      हम भलीभाँति यह जानते हैं की वृक्षों को काटने से हमे मुफ्त  ऑक्सीजन और भी जाने कितने जीवनदायिनी चीजे नहीं मिलेंगी फिर भी आँख बाद कर के कटे जा रहे हैं। परन्तु मेरे समझ से परे हैं एक बात की हमे तो मुफ्तखोरी की भी आदत हैं फिर प्रकृति को क्यों मिटाने पर उतारू हो गए हैं। क्यूंकि हमारी आदत तो यह भी हैं की हम मतलबी भी हैं। मुफ्त का ज़ेहर भी हमे जान से ज्यादा प्यारा लगता हैं। यकीं नहीं हैं तो बीच सड़क पर रुपयों की गड्डी उछाल कर देखिये ,लोग अपने जान की परवाह किये बिना ही बीच सड़क पर कूद पड़ेंगे बिना सोंचे - विचारे। हैमलेट लगाने से हमारी सुरक्षा हैं पर नहीं सकते क्यूंकि नियमों को तोड़ने की आदत हैं। खुले में शौंच करना गन्दी बात हैं पर इसका आनंद लेना नहीं छोड़ेंगे। सफाई तो सबको अच्छी लगाती हैं पर साफ़ करने में शर्मिंदगी हैं और कचरा फैलाना फूल बरसाने के जैसा लगता हैं ,इसलिए तो आज सिर्फ सफाई के लिय करोड़ों खर्च उठाने पड़ रहे हैं। अगर इस पैसे का उपयोग हम विकास के कार्यो पर करते तो शायद आज हम अमेरिका जैसे देशो के साथ होते। आज हमारी हर विफलता के पीछे हमारी इन्ही आदतों का श्रेय जाता हैं और हम हैं की समस्याओं से जूझने के बावजूद भी अपने होश को सम्भाल नहीं पा रहे।
                           2009 में स्वाइन फ्लू का आगमन भारत के पुणे में हुआ और जाने कितने लोग मरे गए। बात मरने की नहीं हैं परन्तु विवशता तो यह हैं की 05 सालों के बाद भी हम इस पर काबू नहीं पा सके और आज भी लोग संक्रमण से बेमौत मरे जा रहे हैं। अगर बिना किसी लापरवाही के सही ढंग से शोध कर के दवाओं का निर्माण किया गया होता तो आज फिर से इस बीमारी का कुप्रभाव नहीं दिखता। और भी जाने कितनी बीमारिया हैं जिनका कारगर उपचार  पास नहीं हैं। लेकिन एबोला से भी बचने का उपचार हमे अभी से ढूँढ निकालना चाहिए नहीं तो बेमौत मरने की प्रतीक्षा तो हम सदियों से करते आ रहे हैं।  हमारे लापरवाही के आदत से ही जाने कितने लोग मरे जाते हैं और हम खुद को भी नहीं बचा पाते हैं।
                               21 वीं सदी यानि की आधुनिकता का भरमार  इस तरह से  साथ चलेंगे तो  कल को  रूप में ही देखेंगे। बात चाहें सड़क या घरेलू दुर्घटना की हो ,एक वजह तो साफ़ - साफ  दिखता हैं - लापरवाही और दुर्घटनापरान्त जगने की आदत।  शिक्षित तो हैं पर आदतो से मजबूर हैं फिर हमारी शिक्षा का कोई मोल ही नहीं। क्यूंकि लापरवाही से तो जानवर भी जी लेते हैं।  अविष्कार के साथ ,लापरवाही का तिरष्कार नहीं किये तो आने वाली हवा  स्वाइन - फ्लू और एबोला जैसे घातक रोग हमे मुफ्त में बेशक मिलेंगे क्यूंकि ,भाई ! हम तो अपनी आदत से हैं मजबूर। सत्कार - सी आदत का स्वागत कर के लापरवाही को दूर करना  ही मानवता के लिए हितकर होगा।
{सधन्यवाद }

- रवि कुमार गुप्ता
एम.ए. इन जर्नलिज्म एण्ड मास्स कम्युनिकेशन
केन्द्रीय विश्वविद्यालय , उड़ीसा
  

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