Monday 19 December 2016

एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-


चंद्रमणी जोर और उसके बेटे लाश को बिन अर्थी श्मशान घाट ले जाते हुए।  पिक - नवभारत 

एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-


गरीब को नहीं मिलता/डोली को कंधा/अर्थी कौन उठाता है/जहां मिलता नहीं फायदा/वहां पर मुंह भी नहीं खुलता है/सिंदूर की किमत कम ना होती/तो यह भी नसीब ना होता…’ दाना मांझी के दर्द की कहानी को अभे कोई भूला नहीं कि इस समाज ने एक और दीना को पत्नी की लाश ढोने को मजबूर कर दिया. यह कहानी बरगढ़ जिला में गुजारा कर रहे चंद्रमणी जोर की है, जो कि अपनी पत्नी के लिए अर्थी ना बना पाया तो कंधों पर ही लाश को शमशान घाट तक लाश बनकर ढोया. ना लकड़ी नसीब हो पाया और ना ही आग पर दो गज जमीन में दफना कर बीवी को अंतिम विदाई दे दिया. फूटकर रो भी ना पाया, अगर रोता तो फिर अंतिम संस्कार कौन करता. कौन पोंछता उसके आंसूओं को, कौन रोकता उसके दर्द के दरिया को? यह समाज, जिसने ना कंधा दिया, ना लकड़ी तो क्या ये उसके आंसुओं को पोंछते. शायद यह सब सोंचकर काठ बन गया था कलेजा उसका. वैसे इस समाज ने उसे कठ-करेज तो कहा ही होगा, पर कठ-करेज कौन है? बरगढ जिला, भेड़ेन ब्लॉक के उदेपुर गांव के लोग कठ-करेज ना होते तो कम से कम एक बांस तो अर्थी के लिए दे दिए होते. अरे, सौ-पचास ना सही बस कोई एक आकर भी तो कंधा दे दिया होता तो शायद आज फिर से ओड़िशा की इस धार्मिक धरती को यह दानवता का घूंट नहीं पीना पड़ता. अच्छा हुआ कि चंद्रमणी के चार कंधे पहले से तैयार हैं. अच्छा हुआ कि ऐसे समय पर उसके तीन बेटे साथ दिए. हालाकि चंद्रमणी जोर जयघंट गांव, संबलपुर जिला का मूल निवासी है पर वह अपने परिवार का गुजारा कराने के लिए उदेपुर में सारमंगला पूजा करने गया था. इस पूजा से मिले दान-दक्षिणा से गुजारा होता है. इसके गरीबी ने यह पहली दफा दर्द नहीं दिया है, इससे पहले बीमार दो बेटी को भी ना बचा पाया और पत्नी हेमबती को भी बीमार ही मरने दिया. क्या करता यह गरीब क्योंकि ओड़िशा के स्वास्थ्य विभाग और आर्थिक स्थिति के बारे में तो हम जानते ही है. इतना ही नहीं यह गुजारा भी कर रहा है तो पेड़ के नीचे. वाह रे हमारा समाज हमें तो कंबल ब्रांडेड चाहिए, घर डेकोरेटेड चाहिए पर हम उनको क्यों नहीं कुछ देते जिनके पास कुछ हैं ही नही. लेकिन चंद्रभूषण ने साबित कर दिया की अब दुनिया मांझी-चमार-दुषाद से नहीं बल्कि गरीबी के दाग से नफरत करने लगी है. वरना इस घर-घर के पुजारी से क्या घृणा थी जो कि एक कंधा और एक बांस तक ना दे सका हमारा यह सामाज. इसी बात को सोंचकर चंद्रमणी भी कठ-करेज बन गया कि अपनी जीवनी संगिनी के अंतिम विदाई पर ना अर्थी दे पाया और ना आग. पर समाज का यह रूप देखकर आग उसके मन में तो जल ही रहा हैं. एक दिन उसे भी तो इसी आग में जल जाना है क्योंकि वह कोई नेता,एक्टर,मुखिया,सरपंच थोड़े ही है जो कि उसको कफन और अर्थी नसीब होगा.

No comments:

Post a Comment